पिछले कई दिनों में हमने देखा है कि कश्मीर के हालात पर कई सारे वीडियोस सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोर रहे हैं. इन्होंने राजनीतिक माहौल को काफी गरमा दिया है. एक वीडियो में एक सुरक्षा में तैनात जवान को पत्थरों से मारने की बात जाहिर हुई है जबकि एक वीडियो में सुरक्षाकर्मी अपने वाहन के अग्रभाग में एक उपद्रवी को बांध कर ले जा रहे हैं जिससे कि वह पत्थरबाजों से बच सकें.
इन घटनाओं ने कई सारे राजनीतिक दलों को आमने सामने ला खड़ा किया है. जहां पर उमर अब्दुल्ला की पार्टी पत्थरबाजों के साथ दिखाई देती है और उनके साथ हमदर्दी दिखा रही है वही भारतीय जनता पार्टी जवानों के साथ डटकर खड़ी है.
लेकिन इस मसले के बीच यह सवाल बड़ा है कि क्या पत्थरबाजों को रोकने की जिम्मेदारी सिर्फ सेना की है? भारत के नागरिकों की, यहां के राजनीतिक दलों की इसके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं?
आखिर कौन है यह पत्थर बाज और इनकी आय का स्रोत क्या है? कौन इनकी मदद कर रहा है और कश्मीर का माहौल कौन बिगाड़ रहा है ? यह कुछ प्रश्न सभी के मस्तिष्क में अपना स्थान बनाए हुए हैं. सरकार का कहना है कि कुछ मुट्ठी भर लोग जिन्हें पाकिस्तान की आई एस आई प्रोत्साहन दे रही है, ऐसा कर रहे हैं जबकि पाकिस्तान इसे कश्मीर की आजादी की लड़ाई कहता है.
राजनीतिक दलों ने इसे एक चुनावी मुद्दा बना लिया है. आईए थोड़ा इस पर नजर डालते हैं कि कौन सा राजनीतिक दल क्या कह रहा है?
कांग्रेस पार्टी का कहना है कि यह प्रदर्शन सेना के खिलाफ नहीं बल्कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार जिसमें अब कुछ ज्यादा फर्क नहीं है, के खिलाफ है क्योंकि वह, जो कुछ लोग असंतुष्ट हैं कश्मीर घाटी में, उनसे बात नहीं करना चाह रहे और वही सेना को निर्देश दे रहे हैं यह सब करने के लिए. क्योंकि सेना सिर्फ निर्देशों का पालन करती है वह अपनी मर्जी से कुछ नहीं करती.
फारुख अब्दुल्ला का कहना है की इस पूरी समस्या का हल बातचीत से ही निकल सकता है गोली चलाने से इस बात का हल नहीं निकलेगा मैं पिछली सरकार में भी यह बात कहता रहा हूं आज भी कहूंगा कि आइए बैठकर बात करते हैं.
लेकिन यह बात भी गौर करने वाली है कि यह पत्थर बाज यह आतंकवादी क्या हमारे बात करने से सुधर जाएंगे? हमारी बात मान जाएंगे? अगर ऐसा होना होता तो पिछले 40 सालों से हम क्या कर रहे हैं? इतने साल हमने बात ही तो की है इसका क्या परिणाम निकला है. 1990 में करीब 3.5 लाख कश्मीरी हिंदुओं को घाटी से भगा दिया गया. यह सभी राजनीतिक दल उस वक्त भी मौन थे और आज भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलते. धीरे-धीरे कश्मीर का अल्पसंख्यक समुदाय पलायन करता जा रहा है. पत्थरबाजी की घटनाएं बढ़ रही हैं और राजनीतिक पार्टियां बल प्रयोग करने को मना कर रही है क्या यह उचित है?
ध्यान रहे कि अभी कुछ आतंकवादियों के एनकाउंटर के समय भी यह पत्थरबाज सेना पर पत्थरबाजी करते पाए गए थे. जब सेना आतंकवादियों का सफाया कर रही हो उस समय उन्हें घेरकर उन पर पत्थर बरसाना क्या प्रदर्शित करता है? क्या यह आतंकवादियों का खुला समर्थन नहीं है? क्या इस पर हमें बैठ कर बात करने की जरूरत है? और अगर हां तो माफ कीजिए मेरी नजर में यह समर्पण है आतंकवादियों के समक्ष, उग्रवादियों के समक्ष, इन पत्थरबाजों के समक्ष.
अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल एकजुटता दिखाएं धारा 370 को समाप्त करें. जिससे कि भारत के सारे कानून जम्मू कश्मीर पर लागू हो सके. सेना को बल प्रयोग की खुली छूट दी जाए जिससे इन पत्थरबाजों और आतंकवादियों का समूल नाश किया जा सके. अब धैर्य का नहीं शौर्य का वक्त है. अब आराधना का वक्त नहीं, साधना का वक्त नहीं, सामना करो, बहादुरी से दुश्मनों का सामना करो. इन्ही पंक्तियों के साथ अपनी बात को समाप्त करता हूं.
इन घटनाओं ने कई सारे राजनीतिक दलों को आमने सामने ला खड़ा किया है. जहां पर उमर अब्दुल्ला की पार्टी पत्थरबाजों के साथ दिखाई देती है और उनके साथ हमदर्दी दिखा रही है वही भारतीय जनता पार्टी जवानों के साथ डटकर खड़ी है.
लेकिन इस मसले के बीच यह सवाल बड़ा है कि क्या पत्थरबाजों को रोकने की जिम्मेदारी सिर्फ सेना की है? भारत के नागरिकों की, यहां के राजनीतिक दलों की इसके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं?
आखिर कौन है यह पत्थर बाज और इनकी आय का स्रोत क्या है? कौन इनकी मदद कर रहा है और कश्मीर का माहौल कौन बिगाड़ रहा है ? यह कुछ प्रश्न सभी के मस्तिष्क में अपना स्थान बनाए हुए हैं. सरकार का कहना है कि कुछ मुट्ठी भर लोग जिन्हें पाकिस्तान की आई एस आई प्रोत्साहन दे रही है, ऐसा कर रहे हैं जबकि पाकिस्तान इसे कश्मीर की आजादी की लड़ाई कहता है.
राजनीतिक दलों ने इसे एक चुनावी मुद्दा बना लिया है. आईए थोड़ा इस पर नजर डालते हैं कि कौन सा राजनीतिक दल क्या कह रहा है?
कांग्रेस पार्टी का कहना है कि यह प्रदर्शन सेना के खिलाफ नहीं बल्कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार जिसमें अब कुछ ज्यादा फर्क नहीं है, के खिलाफ है क्योंकि वह, जो कुछ लोग असंतुष्ट हैं कश्मीर घाटी में, उनसे बात नहीं करना चाह रहे और वही सेना को निर्देश दे रहे हैं यह सब करने के लिए. क्योंकि सेना सिर्फ निर्देशों का पालन करती है वह अपनी मर्जी से कुछ नहीं करती.
फारुख अब्दुल्ला का कहना है की इस पूरी समस्या का हल बातचीत से ही निकल सकता है गोली चलाने से इस बात का हल नहीं निकलेगा मैं पिछली सरकार में भी यह बात कहता रहा हूं आज भी कहूंगा कि आइए बैठकर बात करते हैं.
लेकिन यह बात भी गौर करने वाली है कि यह पत्थर बाज यह आतंकवादी क्या हमारे बात करने से सुधर जाएंगे? हमारी बात मान जाएंगे? अगर ऐसा होना होता तो पिछले 40 सालों से हम क्या कर रहे हैं? इतने साल हमने बात ही तो की है इसका क्या परिणाम निकला है. 1990 में करीब 3.5 लाख कश्मीरी हिंदुओं को घाटी से भगा दिया गया. यह सभी राजनीतिक दल उस वक्त भी मौन थे और आज भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलते. धीरे-धीरे कश्मीर का अल्पसंख्यक समुदाय पलायन करता जा रहा है. पत्थरबाजी की घटनाएं बढ़ रही हैं और राजनीतिक पार्टियां बल प्रयोग करने को मना कर रही है क्या यह उचित है?
ध्यान रहे कि अभी कुछ आतंकवादियों के एनकाउंटर के समय भी यह पत्थरबाज सेना पर पत्थरबाजी करते पाए गए थे. जब सेना आतंकवादियों का सफाया कर रही हो उस समय उन्हें घेरकर उन पर पत्थर बरसाना क्या प्रदर्शित करता है? क्या यह आतंकवादियों का खुला समर्थन नहीं है? क्या इस पर हमें बैठ कर बात करने की जरूरत है? और अगर हां तो माफ कीजिए मेरी नजर में यह समर्पण है आतंकवादियों के समक्ष, उग्रवादियों के समक्ष, इन पत्थरबाजों के समक्ष.
अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल एकजुटता दिखाएं धारा 370 को समाप्त करें. जिससे कि भारत के सारे कानून जम्मू कश्मीर पर लागू हो सके. सेना को बल प्रयोग की खुली छूट दी जाए जिससे इन पत्थरबाजों और आतंकवादियों का समूल नाश किया जा सके. अब धैर्य का नहीं शौर्य का वक्त है. अब आराधना का वक्त नहीं, साधना का वक्त नहीं, सामना करो, बहादुरी से दुश्मनों का सामना करो. इन्ही पंक्तियों के साथ अपनी बात को समाप्त करता हूं.
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