भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भुवनेश्वर, उड़ीसा में शुरू हो चुकी है. इससे ठीक पहले अखिलेश यादव का एक बयान मीडिया में चर्चा का प्रमुख कारण बन गया है अखिलेश यादव ने कहा है कि वह मोदी को रोकने के लिए किसी भी तरह के गठबंधन के लिए तैयार है. आपको बता दें कि कुछ दिनों पहले ही मायावती ने भी गठबंधन के लिए तैयार रहने की बात कही थी तो क्या मुलायम और मायावती एक साथ आ रहे हैं? और अन्य प्रदेशों के भी छोटे बड़े दल क्या 2019 में एकजुट होकर मोदी की विजय रथ को रोक पाएंगे.
क्या मोदी के 2019 के प्लान से विपक्ष बुरी तरह डर गया है? कि जो लोग एक दूसरे के धुर विरोधी थे वह एक साथ आने को तैयार हो गए हैं. अभी हम ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में देखा कि कैसे कांग्रेस और समाजवादी पार्टी एक साथ मोदी के खिलाफ मैदान में आ गए थे लेकिन जनता को यह साथ पसंद नहीं आया था.
कई बार ऐसा भी होता है कि साथ आए हुए दलों के वोट बैंक एकजुट नहीं हो पाते और उसका लाभ विरोधी पार्टी को मिल जाता है और कई बार यह गठबंधन उन्हीं के लिए विस्फोटक साबित हो जाता है. जैसा की हमने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में देखा कि कैसे विरोधियों के चीथड़े उड़ा दिए जनता ने.
मायावती जी का कहना है कि वह लोकतंत्र को बचाने के लिए किसी भी तरह के गठबंधन के लिए तैयार है लेकिन क्या यह लोकतंत्र को बचाने की मुहिम है या अपनी अपना अस्तित्व. जैसा कि हम जानते हैं कि मायावती जी की पार्टी (बसपा) का अस्तित्व उत्तरप्रदेश में इतना भी नहीं बचा कि वह अपने बूते राज्यसभा का टिकट पा सकें और समाजवादी पार्टी के अंदर मचे घमासान ने उन्हें बहुत कमजोर कर दिया है. तो यह मानने में कोई बुराई नहीं कि यह अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई ज्यादा है, और जैसा कि हम जानते हैं कि राजनीति में कोई नैतिकता नहीं होती और पार्टियां सत्ता के लिए विरोधियों को भी गले लगा ही लेते हैं
इसमें कोई दो मत नहीं कि देश में कभी भी किसी भी पार्टी का एकछत्र राज नहीं होना चाहिए. इससे लोकतंत्र में संतुलन बना रहता है. एक शक्तिशाली विपक्ष का होना लोकतंत्र में अनिवार्य है. अतः अगर यह सारी पार्टियां विपक्ष को मजबूत बनाने के लिए एक साथ आ रही हैं तो इसमें कोई हर्ज नहीं है. किंतु अपने सिद्धांतों की बलि देकर सिर्फ अपना अस्तित्व बचाने के लिए अगर कुछ लोग साथ आते हैं तो इसे स्वार्थ वादी राजनीति ज्यादा कहेंगे.
विपक्षी पार्टियों के समक्ष चुनौतियां
सबसे बड़ी चुनौती विपक्ष के सामने यह है कि इस गठबंधन का नेता कौन होगा. अगर एक क्षण के लिए हम मान भी लें कि देश के सारे विपक्षी दल गैर भाजपा गठबंधन बनाने में सफल भी हो जाते हैं. तो क्या वह अपना एक नेता चुन पाएंगे? क्या मायावती अखिलेश को या अखिलेश राहुल गांधी को, ममता बनर्जी केजरीवाल को या अन्य किसी को प्रधानमंत्री का चेहरा बनाकर मैदान में उतरेंगे? क्योंकि जनता के सामने एकजुटता दिखाने के लिए एक प्रधानमंत्री का उम्मीदवार भी होना चाहिए. या सारी पार्टियां बिना किसी चेहरे के ही 2019 का चुनाव लड़ेंगी.
विपक्ष के सामने एक चुनौती यह भी है की पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कम्युनिस्ट पार्टी एक साथ नहीं आ सकते तमिलनाडु में डीएमके और एआईडीएमके एक साथ नहीं आ सकते. यही हाल कमोबेश कई और राज्यों में है.
विपक्ष के एक होने का आधार
अगर हम विपक्ष के एक होने की वजह तलाशना चाहे तो हमें एक तरफ अपने अस्तित्व को बचाए रखने की कोशिश नजर आती है और दूसरी तरफ बिहार मॉडल नजर आता है. जैसा कि हमें ज्ञात है कि 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेस पार्टी एक साथ आ गए थे और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के विजय रथ को रोक दिया था. जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन 40 में से 31 सीटें लोकसभा चुनाव में लाने में सफल रहा था वह विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से परास्त हुआ. यही वह उम्मीद है जिसकी वजह से सारी पार्टियां मोदी के खिलाफ एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं. ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले भी नीतीश कुमार ने कांग्रेस, बसपा और सपा से एकजुट होने का आह्वान किया था.
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